Friday 21 December 2012

कितना प्यारा वो सपना था , साथ   हमेशा वो अपना था ,
खुश थे थोड़ी कमी में  भी , चुभ सके वो  इतनी बड़ी  न थी,
हिम्मत थी  विश्वास  था  और  आस आम से आगे की ,
 हासिल करने अपने सपने चुपचाप वो निकल पड़ी थी।।


क्या चोट तुम्हारे ऊपर की जो तुम ऐसे भड़क गए,
इंसान की दहशत के बदतर प्रतिमान क्यों ऐसे ऐसे गढ़ गए,
'मौत' से बढ़कर मार दिया , चीरा नहीं सिर्फ 'चीर' को ,
 नोंच ड़ाला  उस चीर में ढके हुए  ज़मीर को ........
घोल कर पी गए तुम मेरी पवित्रता की तस्वीर को ,
छोड़ा  नहीं तोड़ डाला हैवानिअत  की हर जंजीर को .......


नपुंसक पुरुष के पुरुषार्थ का पुरस्कार आज तुम ले  जाओ,
मेरे नंगे बदन की खोरोंचो से आत्मा अपनी खोज  लाओ ,
कर जर्जर नश्वर शरीर , यह सोचने की भूल न करना ,
अस्तित्व असीमित है मेरा ,उससे विशाल मेरी अस्मिता ....
न तुम्हारी पहुँच से , सोच से भी कोसों  दूर ,
तुम्हारे  दुस्साहस  को देखो  चिढ़ा रहा मेरा गुरुर!!!!


सिर्फ सुहावना इतिहास नहीं ,उज्जवल मेरा भविष्य भी है,
'नर' कहलाने की चेतना  तनिक भी तुममे 'दृश्य ' न है ,
क्षमा  भूल दंड के भी नाकाबिल मैंने  माना ,
प्रथम प्रयास नहीं यह , दुहराव प्रयसों का  सदियों पुराना .......


अस्वीकार आज अधिपत्य किया नर नरपति दोनों का,
हर बंधन संकीर्ण हुआ , में अब अपनी भाग्य  विधाता !!!
लो त्याग दिया तुमसे निर्मित हर ऒछी देहेली को,
मानव से भरी  धरा में मानवता जहाँ पहेली हो ..........

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