Tuesday 27 September 2016

मुठ्ठी से रेत की तरह निकलता
ज़िन्दगी के हर फासले पर फिसलता
कभी आंसू कभी हंसी बख्शता
कभी प्यार कभी  ख़ुशी तलाशता
ये कमबख्त वक़्त .....

ये दुआ हमारी हो कबूल
हमे मिले वक़्त इतना ज़रूर
मुकम्मल  हो सकें वो मामले
जिन्हें वक़्त आ कर खुद थाम ले...

ज़िन्दगी की  पाठशाला में
वक़्त वह बेंत है
ज़ख्म  वही देता है ,जो
मुनासिब नेक है...

कभी वक़्त मिले तो निकलना
वक़्त को ठीक से पहचानना
कर्म और करम दोनों का
फल देता ये एक सा !!!!

आज चाँद की रोशनी कुछ खास है ,
अनजानी अनकही कोई  बात है
जाने ये आने वाली भोर की ख़ुशी है ,या
बीतती   हुई  रात  की  याद  है
दरख्तों के साये से छनती हुई चांदनी
अक़्सर दे जाती ये  खूबसूरत एहसास है
काली घनी रात में भी ,ज़िंदा अभी एक आस है !!

Monday 24 February 2014

अतृप्त  धरती के सूखे अधरों को ,
अपनी बूँदो से चूमता आकाश ,
परिभाषित करता  है या अलंकृत , प्रेम को ??
जिनका मिलन तो सम्भव नहीं , पर
अगाध स्नेह स्वयं फूट पड़ता है
तड़प देख कर एक दूजे  की। .

यह वसुधा, एक  अनकहे अनकहे वायदे के लिए
अंतहीन अम्बर के संदशों का
अपलक इंतज़ार करती है
और, आसमान
क्षितिज के भ्रम को  भी
जन्मान्तर के रिश्तों सा  निभाता
इस परस्पर प्रेम का बोध करता है

सूरज का  तेज , चाँद  कि शीतलता
तारों की  झिलमिल   और  बादलों  कि फुहार
चंद  अठखेलियाँ हैं  आकाश की
पृथ्वी  को  रिझाने  के  लिए। .
लहलहाते  खेत , चिड़ियों  की चकचक
इठलाती  नदियां  और  इतराते  पहाड़
पृथ्वी द्वारा आकाश  के  प्रेम  के
संचय  का   रूप हैं। ……।

प्रेम  के   उपहार  की  इससे  अधिक  सार्थकता  क्या  होगी!!!!

धरती  और  अम्बर  का प्रेम
इतना  विशाल, इतना बलवान  हो चला  है
सब समाहित  हो गया  है इनके बीच
 ये  दूरी ,
जो मीलों  की है, वो
दरअसल  आलिंगन का घेरा  है
जो  बढता  हुआ  इतना फ़ैल  गया  कि
इसने  समेट  लिआ  सब  कुछ
अदृश्य   प्रेम  की  विह्वलता  में.
और  उसी  प्रेम से  प्रस्फुटित  हुए  भाव
अगणित  भाव.……………
 

Sunday 23 February 2014

कभी यूं ही शून्य मे पड़े ताकते रहे का...
 चुपचाप सुना अनसुना कर देने का....
 बस साँसो के चलते रहने का भी... 
अर्थ निराला होता है.... 
अच्छा लगता है....
 किसी का पास ना होना...
 खुद की भी खुद न सुनना,
 कोई चिंता नहीं , न कोई चिंतन 
कोई उद्देश्य नहीं, न कोई मंथन
 कोई सोच नहीं, ना डर ,
 बस एक क्रियाशील निष्क्रियता...!!!

Saturday 20 April 2013

LIVE RATHER THAN MERELY SURVIVING

Many a times, we get hurt by those who are connected to us in a way or either. They may be the closest one or even a casual acquaintance . Few of them are those whom we cannot define, we are not to name that bond & that unnamed bond , not necessarily intimate or romantic one  when cracks create a void. 
    It is an  unhidden truth that relations are the foremost important auxiliaries to lead a wonderfully satisfactory life. Going through an improvement of above, good relations  are the utmost important need just after those of biological origination. Biological needs are to be fulfilled in order to SURVIVE  but  the need of fulfillment of  relations is set to be achieved in order to LIVE the life.  What  I appreciate is living the life in full of its colours, We are born to live not for a mere survival . 
 Belonging to the most brilliant class of living fellows , we require it in highest degree. Whatever argument one presents referring to the pragmatic approach , the matter of fact lies here only. The relation of  a person with the life, the relation of a person with the ways of life and the relation of a person with the all other relations in life,  are the paramount factors,  rest is all facile...
  Feel the value of relations , satisfy each of them and start living rather than merely surviving!!

Friday 19 April 2013

Gareeb

उस  सरल, निश्छल  मुस्कान  का
क्या  मोल  लगा  सकोगे?
हर   सुबह जो  दीख पड़ती ,
दौड़ती गाडियों  वाली सड़क पर।
हर  चौराहे  के  मुहाने  पर ,
रेल  पटरियों  के निकट ,
मलिन कपड़ो  में  लिपटी,
उलझे  बालों  में फँसी ,
वो  नन्ही , मासूम  हंसी।

बड़ी  गाड़ियों में घूमना शौक  नहीं ,
या  जीवन से इतनी  उन्हें  आस  नहीं,
जब तक दिखती हैं  परछाइयाँ  भी ,
दौड़ कर  उसे  पछाड़ने  की  जुगत   करते हैं,
और  खिलखिला  पड़ते  हैं  की  मानो ,
अभी  अभी  अंतरिक्ष  की सैर  की  हो।

उस  मामूली  टीन  के  कटोरे  में ,
साना  हुआ  बासी भात ,
वो  इतने  चाव  से  खाएं,
देख कर  जिस  आकुलता  को ,
अन्नपूर्णा  स्वयं  लालच  जायें ,
फैलाकर  नन्ही  सी  हथेली
जब   पानी की  दो  बूँद  पिएं ,
स्वाद  जादुई  ही  होगा
चहेरे  का संतोष  कहे ..

वो  गरीब  हैं ,
 सब  ऐसा कहते  हैं ,
पर   मेरी  मनो  सच ये  है  की ,
उस  रईस   गरीबी  से,
सब   अंदर अंदर  जलते  हैं।

छप्पन  भोग  भरी  थाली ,
भूख  मिटा  न  पाती है ,
न  जल  से भरी   स्वर्ण प्याली ,
प्यासे  की आग  बुझती  है ,
काम  आती है  वो  जिजीविषा ,
वो  चाहत  अन्न  के  दाने  की ,
जो  उन  गहरी  आँखों  में
छलका  करती  मनमानी  ही ......  

SHANTI

बोलना  इतना  ज़रूरी नहीं ,
पर  ज़रूरी  है  भी ...
आज की चीखती दुनिया में ,
शोर खा जाता है शांति को ,
और  जन्म लेती  है  चुप्पी ,
वो , जिसे शांति  की बहिन  मानते  हैं ,
पर दरअसल  सौतन है  वो उसकी ..

शांति भीतर  होती  है ,
चुप्पी  बाहर चीत्कारती  है ,
शांति, आत्म  की उच्चतर अवस्था ,
चुप्पी, आत्म की मृत्यु  का  शोक,
शांति , शोर  का मर्यादित विरोध,
चुप्पी , विरोध की  पराकाष्ठा,
शांति चेतना  की  वाहिनी ,
शांति  गरिमा  का  प्रसार ,
चुप्पी , गरिमा पर  मूक  प्रहार।

निराशा , चुप्पी  की  माँ,
बांधती  है ताना  बाना ,
शांति , को  चुप्पी  में  बदलने  का ,
अपनी  मानसिकता  के  ज़हर  से ,
ताकि  पनप  सके उसकी  गोद  में,
चुप्पी  से  जन्मे  बच्चे ...

सबसे  पहले  डर  आया,
फिर  जागृत  हुई  अनिच्छा,
इसके   बाद अकर्मण्यता  ने,
पग  पग  पर  भेदी  मानवता ..


इस लिए  बोलना  ज़रूरी  है,
बोलने से   आस  बंधती  है ,
आस से  निराशा  छंटती  है .
मरती है  चुप्पी , अजन्मे  रहते  है  बच्चे ,
तभी  मिल  पाती  है  शांति  मानवता  से ,
स्वगातुत्सुक  हो कर  नवनिर्माण  के ....