उस सरल, निश्छल मुस्कान का
क्या मोल लगा सकोगे?
हर सुबह जो दीख पड़ती ,
दौड़ती गाडियों वाली सड़क पर।
हर चौराहे के मुहाने पर ,
रेल पटरियों के निकट ,
मलिन कपड़ो में लिपटी,
उलझे बालों में फँसी ,
वो नन्ही , मासूम हंसी।
बड़ी गाड़ियों में घूमना शौक नहीं ,
या जीवन से इतनी उन्हें आस नहीं,
जब तक दिखती हैं परछाइयाँ भी ,
दौड़ कर उसे पछाड़ने की जुगत करते हैं,
और खिलखिला पड़ते हैं की मानो ,
अभी अभी अंतरिक्ष की सैर की हो।
उस मामूली टीन के कटोरे में ,
साना हुआ बासी भात ,
वो इतने चाव से खाएं,
देख कर जिस आकुलता को ,
अन्नपूर्णा स्वयं लालच जायें ,
फैलाकर नन्ही सी हथेली
जब पानी की दो बूँद पिएं ,
स्वाद जादुई ही होगा
चहेरे का संतोष कहे ..
वो गरीब हैं ,
सब ऐसा कहते हैं ,
पर मेरी मनो सच ये है की ,
उस रईस गरीबी से,
सब अंदर अंदर जलते हैं।
छप्पन भोग भरी थाली ,
भूख मिटा न पाती है ,
न जल से भरी स्वर्ण प्याली ,
प्यासे की आग बुझती है ,
काम आती है वो जिजीविषा ,
वो चाहत अन्न के दाने की ,
जो उन गहरी आँखों में
छलका करती मनमानी ही ......
क्या मोल लगा सकोगे?
हर सुबह जो दीख पड़ती ,
दौड़ती गाडियों वाली सड़क पर।
हर चौराहे के मुहाने पर ,
रेल पटरियों के निकट ,
मलिन कपड़ो में लिपटी,
उलझे बालों में फँसी ,
वो नन्ही , मासूम हंसी।
बड़ी गाड़ियों में घूमना शौक नहीं ,
या जीवन से इतनी उन्हें आस नहीं,
जब तक दिखती हैं परछाइयाँ भी ,
दौड़ कर उसे पछाड़ने की जुगत करते हैं,
और खिलखिला पड़ते हैं की मानो ,
अभी अभी अंतरिक्ष की सैर की हो।
उस मामूली टीन के कटोरे में ,
साना हुआ बासी भात ,
वो इतने चाव से खाएं,
देख कर जिस आकुलता को ,
अन्नपूर्णा स्वयं लालच जायें ,
फैलाकर नन्ही सी हथेली
जब पानी की दो बूँद पिएं ,
स्वाद जादुई ही होगा
चहेरे का संतोष कहे ..
वो गरीब हैं ,
सब ऐसा कहते हैं ,
पर मेरी मनो सच ये है की ,
उस रईस गरीबी से,
सब अंदर अंदर जलते हैं।
छप्पन भोग भरी थाली ,
भूख मिटा न पाती है ,
न जल से भरी स्वर्ण प्याली ,
प्यासे की आग बुझती है ,
काम आती है वो जिजीविषा ,
वो चाहत अन्न के दाने की ,
जो उन गहरी आँखों में
छलका करती मनमानी ही ......
दिव्या जी,
ReplyDeleteबहुत ही मर्म स्पर्शी रचना को मेरा सादर नमन..!
सादर ..
अनुराग त्रिवेदी एहसास