Friday 19 April 2013

Gareeb

उस  सरल, निश्छल  मुस्कान  का
क्या  मोल  लगा  सकोगे?
हर   सुबह जो  दीख पड़ती ,
दौड़ती गाडियों  वाली सड़क पर।
हर  चौराहे  के  मुहाने  पर ,
रेल  पटरियों  के निकट ,
मलिन कपड़ो  में  लिपटी,
उलझे  बालों  में फँसी ,
वो  नन्ही , मासूम  हंसी।

बड़ी  गाड़ियों में घूमना शौक  नहीं ,
या  जीवन से इतनी  उन्हें  आस  नहीं,
जब तक दिखती हैं  परछाइयाँ  भी ,
दौड़ कर  उसे  पछाड़ने  की  जुगत   करते हैं,
और  खिलखिला  पड़ते  हैं  की  मानो ,
अभी  अभी  अंतरिक्ष  की सैर  की  हो।

उस  मामूली  टीन  के  कटोरे  में ,
साना  हुआ  बासी भात ,
वो  इतने  चाव  से  खाएं,
देख कर  जिस  आकुलता  को ,
अन्नपूर्णा  स्वयं  लालच  जायें ,
फैलाकर  नन्ही  सी  हथेली
जब   पानी की  दो  बूँद  पिएं ,
स्वाद  जादुई  ही  होगा
चहेरे  का संतोष  कहे ..

वो  गरीब  हैं ,
 सब  ऐसा कहते  हैं ,
पर   मेरी  मनो  सच ये  है  की ,
उस  रईस   गरीबी  से,
सब   अंदर अंदर  जलते  हैं।

छप्पन  भोग  भरी  थाली ,
भूख  मिटा  न  पाती है ,
न  जल  से भरी   स्वर्ण प्याली ,
प्यासे  की आग  बुझती  है ,
काम  आती है  वो  जिजीविषा ,
वो  चाहत  अन्न  के  दाने  की ,
जो  उन  गहरी  आँखों  में
छलका  करती  मनमानी  ही ......  

1 comment:

  1. दिव्या जी,

    बहुत ही मर्म स्पर्शी रचना को मेरा सादर नमन..!

    सादर ..
    अनुराग त्रिवेदी एहसास

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