Monday 24 February 2014

अतृप्त  धरती के सूखे अधरों को ,
अपनी बूँदो से चूमता आकाश ,
परिभाषित करता  है या अलंकृत , प्रेम को ??
जिनका मिलन तो सम्भव नहीं , पर
अगाध स्नेह स्वयं फूट पड़ता है
तड़प देख कर एक दूजे  की। .

यह वसुधा, एक  अनकहे अनकहे वायदे के लिए
अंतहीन अम्बर के संदशों का
अपलक इंतज़ार करती है
और, आसमान
क्षितिज के भ्रम को  भी
जन्मान्तर के रिश्तों सा  निभाता
इस परस्पर प्रेम का बोध करता है

सूरज का  तेज , चाँद  कि शीतलता
तारों की  झिलमिल   और  बादलों  कि फुहार
चंद  अठखेलियाँ हैं  आकाश की
पृथ्वी  को  रिझाने  के  लिए। .
लहलहाते  खेत , चिड़ियों  की चकचक
इठलाती  नदियां  और  इतराते  पहाड़
पृथ्वी द्वारा आकाश  के  प्रेम  के
संचय  का   रूप हैं। ……।

प्रेम  के   उपहार  की  इससे  अधिक  सार्थकता  क्या  होगी!!!!

धरती  और  अम्बर  का प्रेम
इतना  विशाल, इतना बलवान  हो चला  है
सब समाहित  हो गया  है इनके बीच
 ये  दूरी ,
जो मीलों  की है, वो
दरअसल  आलिंगन का घेरा  है
जो  बढता  हुआ  इतना फ़ैल  गया  कि
इसने  समेट  लिआ  सब  कुछ
अदृश्य   प्रेम  की  विह्वलता  में.
और  उसी  प्रेम से  प्रस्फुटित  हुए  भाव
अगणित  भाव.……………
 

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